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Kundli Ke Pahle Ghar Mai Shani Ka Fal

Kundli Ke Pahle Ghar Mai Shani Ka Fal, लग्न में शनि का प्रभाव, कुंडली के पहले भाव में शनि का फल, लग्न में शनि के उपाय, Saturn in 1st house. जन्म कुंडली में पहला घर जिसे की लग्न भी कहा जाता है बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्यूंकि इसका सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क से होता है और इसीलिए हमारे निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है, लग्न में मौजूद ग्रह और राशि का बहुत गहरा प्रभाव जातक पर रहता है जीवन भर |  Kundli Ke Pahle Ghar Mai Shani Ka Fal Read in English - Saturn in First House Impacts अब आइये जानते हैं शनि ग्रह के बारे में कुछ ख़ास बातें ज्योतिष के अनुसार  : हमारे कर्मो के फल को देने वाले ग्रह हैं शनिदेव इसीलिए इन्हें न्याय के साथ जोड़ा जाता है | वैदिक ज्योतिष के अनुसार शनि का सम्बन्ध  मेहनत, अनुशाशन, गंभीरता, जिम्मेदारी, स्वाभिमान, दुःख, अहंकार, देरी, भूमि, रोग आदि से होता है |  शनि ग्रह मेष राशि में नीच के होते हैं और तुला राशि में उच्च के होते हैं | शनि ग्रह की मित्र राशियाँ हैं – वृषभ, मिथुन और कन्या| शनि ग्रह की शत्रु राशियाँ है – कर्क, सिंह और वृश्चिक| Watch Video Here शनि की दृष्

Ashtavakra Geeta Bhaag 1

अष्टावक्र गीता भाग-1, ज्ञान कैसे होता है ?, मुक्ति कैसे होती है ?, वैराग्य कैसे होता है ?, Ashtavakra Geeta lesson 1.

इसके पहले वाले लेख में हम जान चुके हैं की अष्टावक्र जी का नाम कैसे पड़ा, कैसे उन्होंने पंडितो को कारागार से मुक्त कराया, कैसे वो राजा जनक के गुरु बने | आइये अब आगे बढ़ते हैं और अष्टावक्र गीता के प्रथम अध्याय की और बढ़ते हैं |

अष्टावक्र गीता की शुरुआत होती है राजा जनक के 3 प्रश्न से :

  1. ज्ञान कैसे होता है ?
  2. मुक्ति कैसे होती है ?
  3. वैराग्य कैसे होता है ?

इसके जवाब में अष्टावक्र जी ने राजा जनक को विभिन्न तरीके से उपदेश दिया जिसमे की उन्होंने सांसारिक विषयो को छोड़ने का कारण बताया, खुद का महत्त्व बताया, सुख और शांति का रास्ता बताया, चित्त स्थिरता का महत्त्व बताया | अष्टावक्र जी ने राजन को बताया की वो किसी से भिन्न नहीं हैं , वास्तविक धर्म क्या है ये बताया, बंधन को समझाया है| अष्टावक्र जी ने राजा जनक को अकर्ता होने का उपदेश दिया, अपने शुद्ध रूप का चिंतन करने को कहा |

राजा जनक की पात्रता इतनी अद्भुत थी की गुरूजी से सुनते हुए ही वो समाधि की अवस्था को प्राप्त हो गए |

तो आइये जानते हैं विस्तार से की राजा जनक को ऐसी कौन कौन सी बाते कही की वो उसी समय समाधि की अवस्था में पंहुच गए |

अष्टावक्र गीता भाग-1, ज्ञान कैसे होता है ?, मुक्ति कैसे होती है ?, वैराग्य कैसे होता है ?, Ashtavakra Geeta lesson 1.
Ashtavakra Geeta Bhaag 1

आइए प्रथम अध्याय को शुरू करने से पहले सबसे पहले हम अद्वैत के सिद्धांत को समझते हैं | 

अद्वैत इस संपूर्ण सृष्टि को ईश्वर की रचना नहीं अभिव्यक्ति मानता है यह सारा फैलाव उसी का है सृष्टि में ईश्वर नहीं बल्कि यह सृष्टि ही ईश्वर है आत्मा परमात्मा या ब्रह्म अलग अलग नहीं है जीव और जगत में भिन्नता नहीं है,  प्रकृति व पुरुष एक ही तत्व है, जड़ और चेतन उसी एक की विभिन्न अवस्थाएं मात्र है, वह विभिन्न तत्व नहीं है| 

इस सिद्धांत को हमने इसलिए जाना क्योंकि अष्टावक्र गीता में अद्वैत के सिद्धांत को ही अष्टावक्र जी ने बहुत ही अच्छी तरीके से राजा जनक को समझाया जिसके कारण वह तुरंत समाधि में पहुंच गए तो आइए अब शुरू करते हैं अष्टावक्र गीता का प्रथम अध्याय |

अष्टावक्र गीता भाग-1, ज्ञान कैसे होता है ?, मुक्ति कैसे होती है ?, वैराग्य कैसे होता है ?, Ashtavakra Geeta lesson 1.

Astavakra Geeta in Hindi (First Lesson):

  1. राजा जनक शिष्य भाव से बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥
  2. श्री अष्टावक्र कहते हैं - यदि तुम मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों  को विष की तरह त्याग दो। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन करो ॥२॥
  3. श्री अष्टावक्र कहते हैं – हे प्रिय तू न पृथ्वी है, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानो ॥३॥
  4. है राजन !जब तुम देह से आत्मा को पृथक विचार करके और आसानी से अपनी आत्मा में चित्त को स्थिर करके स्थिर हो जाओगे तो तुम सुख और शांति को प्राप्त करोगे ||4||
  5. हे जनक ! तुम ब्राह्मण आदि जातियों वाले नहीं हो ना तुम वर्णाश्रम आदि धर्म वाले हो ना तुम चक्षु आदि इंद्रिय का विषय हो किंतु तुम इन सब के साक्षी और असंग हो एवं तुम आकार से रहित हो और संपूर्ण विश्व के साक्षी हो ऐसा अपने को जान करके सुखी हो जाओ अर्थात संसार रूपी ताप से रहित हो जाओ ||5||
  6. धर्म और अधर्म सुख और दुख आदि यह सब मन के धर्म है यह तेरे लिए नहीं है तू न करता है ना भोक्ता है तू तो सदैव मुक्त ही है ||6||
  7. हे राजन तू एक सबका दृष्टा है और सर्वदा मुक्त स्वरूप है तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़कर दूसरे को दृष्टा देखता है यहां तुझ में बंध है ||7||
  8. हे जनक ! मैं करता हूं ऐसा अहंकार रूपी विशाल काले सर्प  से दंशित हुआ तू मैं करता नहीं हूं ऐसे विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जा||8||
  9. मैं एक अति शुद्ध बुद्ध रूप हूं ऐसे निश्चय रूपी अग्नि से अपने अज्ञान रूपी वन को जलाकर तू शोक रहित हुआ सुखी हो जा ||9||
  10. जिसमें यह संसार रज्जू में सर्प के समान भासित होता है वही आनंद परमानंद का बोध है अतः तू सुख पूर्वक विचरण कर||10 ||
  11. मुक्ति का अभिमानी मुक्त है और बद्ध का अभिमानी बद्ध है क्योंकि इस संसार में यह किवदंती सत्य है कि जैसी जिसकी मति होती है वैसी ही उसकी गति होती है ||11||
  12. आत्मा साक्षी है, व्यापक है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, चेतन रूप है, क्रिया रहित है, संग रहित है, इच्छा रहित है, शांत है| मात्र भ्रम के कारण संसार जैसा भासता है ||12||
  13. मैं आभास हूं,  मैं अहंकार हूं, इसका त्याग करके और जो बाहर के पदार्थों में ममता हो रही है कि यह मेरा शरीर है, यह मेरा कान है, यह मेरी नाक है, इन सब में अहम और ममता भावना का त्याग करके और अंतःकरण के जो सुख-दुख आदि हैं उसमें जो तुझको अहम् भावना हो रही है उसका त्याग करके आत्मा को अकर्ता, कूटस्थ, असंग ज्ञान स्वरूप अद्वैत और व्यापक निश्चय कर ||13||
  14. हे पुत्र तू देह के अभिमान रूपी पाश से बहुत काल से बंधा हुआ है अब तू आत्म ज्ञान रूपी खड़ग से उसका छेदन करके मैं ज्ञान रूप हूं, नित्य मुक्त हूं ऐसा निश्चय करके सुखी हो जाओ ||14|| 
  15. तू संग रहित है क्रिया रहित है, स्वयं प्रकाश रूप है और निर्दोष है तेरा बंधन यही है कि तू उसकी प्राप्ति के लिए समाधि का अनुष्ठान करता है||15||
  16. यह संसार तुझ में व्याप्त है तुझी में पिरोया है यथार्थ में तू चैतन्य स्वरूप है |अतः विपरीत चित्तवृत्ति को मत प्राप्त हो ||16|
  17. तू अपेक्षा रहित है, विकार रहित है, चिदघन रुप है अर्थात स्वनिर्भर है, शांति और मुक्ति का स्थान है| अगाध चैतन्य बुद्धिरूप है, क्षोभ से रहित है |अतः चैतन्य मात्र में निष्ठा वाला हो ||17||
  18. हे राजन तू साकार को मिथ्या जान, निराकार को निश्चल नित्य जान, इस यथार्थ उपदेश से संसार में पुनः उत्पत्ति नहीं होती है ||18||
  19. जिस तरह दर्पण अपने में प्रतिबिंबित रूप के भीतर और बाहर स्थित है उसी तरह परमात्मा इस शरीर के भीतर और बाहर स्थित है ||19||
  20. जिस प्रकार सर्वगत एक आकाश घट के भीतर और बाहर स्थित है वैसे ही नित्य और निरंतर ब्रह्म सब भूतों के शरीर में स्थित है ||20||

यहाँ पर अष्टावक्र गीता का प्रथम अध्याय समाप्त होता है | 
अष्टावक्र गीता के प्रथम अध्याय का सार सिर्फ इतना है कि आत्मा और परमात्मा एक ही तत्व है उसे पाना नहीं है वह प्राप्त ही है केवल अज्ञान के कारण हमें दिख नहीं रहा है उसे ज्ञान द्वारा पुनः स्मृति में लाना होता है |


अगर अष्टावक्र गीता से संबन्धित कोई विचार आप बंटाना चाहते हैं तो कमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं | अगर कोई उपदेश समझ नहीं आया हो तो भी आप पूछ सकते हैं, उसको और विस्तार से समझाने का प्रयास किया जायेगा |


अष्टावक्र गीता भाग-1, ज्ञान कैसे होता है ?, मुक्ति कैसे होती है ?, वैराग्य कैसे होता है ?, Ashtavakra Geeta lesson 1.

Astavakra Geeta in Sanskrit (First Lesson):

जनक उवाच - कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो॥१॥

अष्टावक्र उवाच - मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥२॥

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥३॥

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥४॥

न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥५॥

धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा॥६॥

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥७॥

अहं कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव॥८॥

एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव॥९॥

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर॥१०॥

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥११॥

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥१२॥

कूटस्थं बोधमद्वैत- मात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्॥१३॥

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१४॥

निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठति॥१५॥

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१६॥

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन:॥१७॥

साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं।
एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव:॥ १८॥

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥१९॥

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥२०॥


अष्टावक्र गीता भाग-1, ज्ञान कैसे होता है ?, मुक्ति कैसे होती है ?, वैराग्य कैसे होता है ?, Ashtavakra Geeta lesson 1.

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