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Budh Ka Vrishcik Raashi mai gochar kab hoga

Budh grah ka vrischik rashi mai gochar kab hoga October 2025, जनिये राशिफल, वृश्चिक राशि में बुध का प्रभाव 2025, Budh ka gochar October. Budh Gochar Vrischik Rashi Mai: बुध 24 अक्टूबर 2025 को दिन में लगभग 12:24  पे वृश्चिक राशि में प्रवेश करेंगे | वैदिक ज्योतिष के हिसाब से बुध का सम्बन्ध बुद्धि, एकाग्रता, वाणी, त्वचा, सौंदर्य,  मित्र, बोलने-सुनने की शक्ति, सुगंध आदि से होता है | यहाँ विशेष बात जो ध्यान रखने वाली है वो ये की वृश्चिक रहस्यमय राशि है | वृश्चिक राशि अपने भावुक, चुंबकीय और अक्सर रहस्यमय स्वभाव के लिए जानी जाती है। यह गहराई, तीव्रता और परिवर्तन से जुड़ी राशि है। अतः बुध का ये गोचर जीवन को गहराई से समझने और छिपी हुई सच्चाइयों को उजागर करने की हमारी क्षमता को बढ़ा सकता है। वृश्चिक राशि में बुध खोजी बातचीत, मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि और दिखावे के पीछे छिपे सत्य को पहचानने की गहरी नज़र को प्रोत्साहित करता है। कुछ लोगों के संचार शैली का विकास होगा, कुछ लोगों के अन्दर ईर्ष्या की भावना का विकास होगा, कुछ लोग अंतर्ज्ञान की खोज में लग जायेंगे, कुछ लोग आत्म निरिक्षण में लग...

Sri Lakshmi Hrudaya Stotram Ke Fayde aur Lyrics

Sri Lakshmi Hrudaya Stotram Ke Fayde aur Lyrics, श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्र के पाठ का महत्व, महा लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने का शक्तिशाली स्त्रोत्र. 

"श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्र" एक अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है। यह स्तोत्र न केवल भौतिक समृद्धि प्रदान करता है, बल्कि मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और जीवन में सौभाग्य की प्राप्ति भी करवाता है। इसके नियमित पाठ का उल्लेख कई पुराणों और धर्मग्रंथों में अत्यंत फलदायी बताया गया है।

Sri Lakshmi Hrudaya Stotram Ke Fayde aur Lyrics, श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्र के पाठ का महत्व, महा लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने का शक्तिशाली स्त्रोत्र.
Sri Lakshmi Hrudaya Stotram Ke Fayde aur Lyrics

इसके पाठ के प्रमुख फायदे इस प्रकार हैं  —

  1. धन और समृद्धि प्राप्ति के रास्ते खुलते हैं : इस स्तोत्र का नित्य पाठ करने से घर में धन, ऐश्वर्य और वैभव की वृद्धि होती है। देवी लक्ष्मी की कृपा से जीवन में आर्थिक स्थिरता आती है।
  2. ऋणमुक्ति और आर्थिक संकट से मुक्ति के रास्ते खुलते हैं : जो व्यक्ति कर्ज या आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहा हो, उसके लिए यह स्तोत्र अत्यंत प्रभावी है। इससे धीरे-धीरे सभी बाधाएँ दूर होती हैं और वित्तीय स्थिति सुधरती है।
  3. शांति और सौभाग्य की प्राप्ति होती है : श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्र का पाठ मन को शांत करता है, घर में सद्भावना बढ़ाता है और परिवार में सौभाग्य का वास करवाता है।
  4. पापों का नाश और शुभ कर्मों की वृद्धि होती है : यह स्तोत्र मनुष्य के पापों को नष्ट कर शुभ कर्मों को प्रबल करता है। इससे जीवन में आध्यात्मिक शुद्धि आती है।
  5. देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति होती है : लक्ष्मीजी स्वयं इस स्तोत्र को अपने हृदय का रहस्य मानती हैं। इसलिए जो व्यक्ति भक्ति भाव से इसका पाठ करता है, उसे देवी की विशेष कृपा प्राप्त होती है।
  6. जीवन में संतुलन और स्थिरता बढ़ने लगती है : यह स्तोत्र व्यक्ति के जीवन में स्थिरता, संतोष और सकारात्मक ऊर्जा लाता है। यह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर संतुलन प्रदान करता है।
  7. शुभ अवसरों और कार्यसिद्धि में सहायक है : किसी नए कार्य, व्यवसाय या यात्रा से पहले इसका पाठ करने से कार्य में सफलता और शुभ फल की प्राप्ति होती है।

Lyrics of Shree Laxmi Hriday Strotram:

अथ श्री लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम्

अथ विनियोगः-

अस्य श्री महालक्ष्मीहृदयस्तोत्र महामंत्रस्य भार्गव ऋषिः, अनुष्टुपादीनि नानाछंदांसि, आद्यादि श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ऐं कीलकं, आद्यादिमहालक्ष्मी प्रसादसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥

ऋष्यादिन्यासः –

ॐ भार्गवृषये नमः शिरसि ।

ॐ अनुष्टुपादिनानाछंदोभ्यो नमो मुखे ।

ॐ आद्यादिश्रीमहालक्ष्मी देवतायै नमो हृदये ।

ॐ श्रीं बीजाय नमो गुह्ये ।

ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयोः ।

ॐ ऐं कीलकाय नमो नाभौ ।

ॐ विनियोगाय नमः सर्वांगे ।

करन्यासः –

ॐ श्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।

ॐ ऐं मध्यमाभ्यां नमः ।

ॐ श्रीं अनामिकाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

ॐ ऐं करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ।

अंगन्यासः –

ॐ श्रीं हृदयाय नमः ।

ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।

ॐ ऐं शिखायै वषट् ।

ॐ श्रीं कवचाय हुम् ।

ॐ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ ऐं अस्त्राय फट् ।

ॐ श्रीं ह्रीं ऐं इति दिग्बंधः ।

अथ ध्यानम् 

हस्तद्वयेन कमले धारयंतीं स्वलीलया ।

हारनूपुरसंयुक्तां लक्ष्मीं देवीं विचिंतये ॥


कौशेयपीतवसनामरविंदनेत्रां

पद्मद्वयाभयवरोद्यतपद्महस्ताम् ।

उद्यच्छतार्कसदृशीं परमांकसंस्थां

ध्यायेद्विधीशनतपादयुगां जनित्रीम् ॥


पीतवस्त्रां सुवर्णांगीं पद्महस्तद्वायान्विताम् ।

लक्ष्मीं ध्यात्वेति मंत्रेण स भवेत्पृथिवीपतिः ॥

मातुलुंगं गदां खेटं पाणौ पात्रं च बिभ्रती ।

नागं लिंगं च योनिं च बिभ्रतीं चैव मूर्धनि ॥


शंखचक्रगदाहस्ते शुभ्रवर्णे सुवासिनी ।

मम देहि वरं लक्ष्मीः सर्वसिद्धिप्रदायिनी ।


ॐ श्रीं ह्रीं ऐं महालक्ष्म्यै कमलधारिण्यै सिंहवाहिन्यै स्वाहा 

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स्तोत्रम् ।

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वंदे लक्ष्मीं परमशिवमयीं शुद्धजांबूनदाभां

तेजोरूपां कनकवसनां सर्वभूषोज्ज्वलांगीम् ।

बीजापूरं कनककलशं हेमपद्मं दधाना-

-माद्यां शक्तिं सकलजननीं विष्णुवामांकसंस्थाम् ॥ 1 ॥


श्रीमत्सौभाग्यजननीं स्तौमि लक्ष्मीं सनातनीम् ।

सर्वकामफलावाप्तिसाधनैकसुखावहाम् ॥ 2 ॥


स्मरामि नित्यं देवेशि त्वया प्रेरितमानसः ।

त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि परमेश्वरीम् ॥ 3 ॥


समस्तसंपत्सुखदां महाश्रियं

समस्तसौभाग्यकरीं महाश्रियम् ।

समस्तकल्याणकरीं महाश्रियं

भजाम्यहं ज्ञानकरीं महाश्रियम् ॥ 4 ॥


विज्ञानसंपत्सुखदां सनातनीं

विचित्रवाग्भूतिकरीं मनोहराम् ।

अनंतसंमोदसुखप्रदायिनीं

नमाम्यहं भूतिकरीं हरिप्रियाम् ॥ 5 ॥


समस्तभूतांतरसंस्थिता त्वं

समस्तभोक्त्रीश्वरि विश्वरूपे ।

तन्नास्ति यत्त्वद्व्यतिरिक्तवस्तु

त्वत्पादपद्मं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ 6 ॥


दारिद्र्य दुःखौघतमोपहंत्री

त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ।

दीनार्तिविच्छेदनहेतुभूतैः

कृपाकटाक्षैरभिषिंच मां श्रीः ॥ 7 ॥


अंब प्रसीद करुणासुधयार्द्रदृष्ट्या

मां त्वत्कृपाद्रविणगेहमिमं कुरुष्व ।

आलोकय प्रणतहृद्गतशोकहंत्री

त्वत्पादपद्मयुगलं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ 8 ॥


शांत्यै नमोऽस्तु शरणागतरक्षणायै

कांत्यै नमोऽस्तु कमनीयगुणाश्रयायै ।

क्षांत्यै नमोऽस्तु दुरितक्षयकारणायै

दात्र्यै नमोऽस्तु धनधान्यसमृद्धिदायै ॥ 9 ॥


शक्त्यै नमोऽस्तु शशिशेखरसंस्तुतायै

रत्यै नमोऽस्तु रजनीकरसोदरायै ।

भक्त्यै नमोऽस्तु भवसागरतारकायै

मत्यै नमोऽस्तु मधुसूदनवल्लभायै ॥ 10 ॥


लक्ष्म्यै नमोऽस्तु शुभलक्षणलक्षितायै

सिद्ध्यै नमोऽस्तु शिवसिद्धसुपूजितायै ।

धृत्यै नमोऽस्त्वमितदुर्गतिभंजनायै

गत्यै नमोऽस्तु वरसद्गतिदायिकायै ॥ 11 ॥


देव्यै नमोऽस्तु दिवि देवगणार्चितायै

भूत्यै नमोऽस्तु भुवनार्तिविनाशनायै ।

धात्र्यै नमोऽस्तु धरणीधरवल्लभायै

पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ 12 ॥


सुतीव्रदारिद्र्यविदुःखहंत्र्यै

नमोऽस्तु ते सर्वभयापहंत्र्यै ।

श्रीविष्णुवक्षःस्थलसंस्थितायै

नमो नमः सर्वविभूतिदायै ॥ 13 ॥


जयतु जयतु लक्ष्मीर्लक्षणालंकृतांगी

जयतु जयतु पद्मा पद्मसद्माभिवंद्या ।

जयतु जयतु विद्या विष्णुवामांकसंस्था

जयतु जयतु सम्यक्सर्वसंपत्करी श्रीः ॥ 14 ॥


जयतु जयतु देवी देवसंघाभिपूज्या

जयतु जयतु भद्रा भार्गवी भाग्यरूपा ।

जयतु जयतु नित्या निर्मलज्ञानवेद्या

जयतु जयतु सत्या सर्वभूतांतरस्था ॥ 15 ॥


जयतु जयतु रम्या रत्नगर्भांतरस्था

जयतु जयतु शुद्धा शुद्धजांबूनदाभा ।

जयतु जयतु कांता कांतिमद्भासितांगी

जयतु जयतु शांता शीघ्रमागच्छ सौम्ये ॥ 16 ॥


यस्याः कलायाः कमलोद्भवाद्या

रुद्राश्च शक्र प्रमुखाश्च देवाः ।

जीवंति सर्वेऽपि सशक्तयस्ते

प्रभुत्वमाप्ताः परमायुषस्ते ॥ 17 ॥


लिलेख निटिले विधिर्मम लिपिं विसृज्यांतरं

त्वया विलिखितव्यमेतदिति तत्फलप्राप्तये ।

तदंतरफलेस्फुटं कमलवासिनी श्रीरिमां

समर्पय समुद्रिकां सकलभाग्यसंसूचिकाम् ॥ 18 ॥


कलया ते यथा देवि जीवंति सचराचराः ।

तथा संपत्करे लक्ष्मि सर्वदा संप्रसीद मे ॥ 19 ॥


यथा विष्णुर्ध्रुवे नित्यं स्वकलां संन्यवेशयत् ।

तथैव स्वकलां लक्ष्मि मयि सम्यक् समर्पय ॥ 20 ॥


सर्वसौख्यप्रदे देवि भक्तानामभयप्रदे ।

अचलां कुरु यत्नेन कलां मयि निवेशिताम् ॥ 21 ॥


मुदास्तां मत्फाले परमपदलक्ष्मीः स्फुटकला

सदा वैकुंठश्रीर्निवसतु कला मे नयनयोः ।

वसेत्सत्ये लोके मम वचसि लक्ष्मीर्वरकला

श्रियः श्वेतद्वीपे निवसतु कला मे स्वकरयोः ॥ 22 ॥


तावन्नित्यं ममांगेषु क्षीराब्धौ श्रीकला वसेत् ।

सूर्याचंद्रमसौ यावद्यावल्लक्ष्मीपतिः श्रियाः ॥ 23 ॥


सर्वमंगलसंपूर्णा सर्वैश्वर्यसमन्विता ।

आद्यादि श्रीर्महालक्ष्मी त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ 24 ॥


अज्ञानतिमिरं हंतुं शुद्धज्ञानप्रकाशिका ।

सर्वैश्वर्यप्रदा मेऽस्तु त्वत्कला मयि संस्थिता ॥ 25 ॥


अलक्ष्मीं हरतु क्षिप्रं तमः सूर्यप्रभा यथा ।

वितनोतु मम श्रेयस्त्वत्कला मयि संस्थिता ॥ 26 ॥


ऐश्वर्यमंगलोत्पत्तिस्त्वत्कलायां निधीयते ।

मयि तस्मात्कृतार्थोऽस्मि पात्रमस्मि स्थितेस्तव ॥ 27 ॥


भवदावेशभाग्यार्हो भाग्यवानस्मि भार्गवि ।

त्वत्प्रसादात्पवित्रोऽहं लोकमातर्नमोऽस्तु ते ॥ 28 ॥


पुनासि मां त्वत्कलयैव यस्मा-

-दतः समागच्छ ममाग्रतस्त्वम् ।

परं पदं श्रीर्भव सुप्रसन्ना

मय्यच्युतेन प्रविशादिलक्ष्मीः ॥ 29 ॥


श्रीवैकुंठस्थिते लक्ष्मि समागच्छ ममाग्रतः ।

नारायणेन सह मां कृपादृष्ट्याऽवलोकय ॥ 30 ॥


सत्यलोकस्थिते लक्ष्मि त्वं ममागच्छ सन्निधिम् ।

वासुदेवेन सहिता प्रसीद वरदा भव ॥ 31 ॥


श्वेतद्वीपस्थिते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ सुव्रते ।

विष्णुना सहिते देवि जगन्मातः प्रसीद मे ॥ 32 ॥


क्षीरांबुधिस्थिते लक्ष्मि समागच्छ समाधवा ।

त्वत्कृपादृष्टिसुधया सततं मां विलोकय ॥ 33 ॥


रत्नगर्भस्थिते लक्ष्मि परिपूर्णे हिरण्मये ।

समागच्छ समागच्छ स्थित्वाऽऽशु पुरतो मम ॥ 34 ॥


स्थिरा भव महालक्ष्मि निश्चला भव निर्मले ।

प्रसन्ने कमले देवि प्रसन्नहृदया भव ॥ 35 ॥


श्रीधरे श्रीमहाभूते त्वदंतःस्थं महानिधिम् ।

शीघ्रमुद्धृत्य पुरतः प्रदर्शय समर्पय ॥ 36 ॥


वसुंधरे श्रीवसुधे वसुदोग्ध्रि कृपामये ।

त्वत्कुक्षिगतसर्वस्वं शीघ्रं मे संप्रदर्शय ॥ 37 ॥


विष्णुप्रिये रत्नगर्भे समस्तफलदे शिवे ।

त्वद्गर्भगतहेमादीन् संप्रदर्शय दर्शय ॥ 38 ॥


रसातलगते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ मे पुरः ।

न जाने परमं रूपं मातर्मे संप्रदर्शय ॥ 39 ॥


आविर्भव मनोवेगाच्छीघ्रमागच्छ मे पुरः ।

मा वत्स भैरिहेत्युक्त्वा कामं गौरिव रक्ष माम् ॥ 40 ॥


देवि शीघ्रं समागच्छ धरणीगर्भसंस्थिते ।

मातस्त्वद्भृत्यभृत्योऽहं मृगये त्वां कुतूहलात् ॥ 41 ॥


उत्तिष्ठ जागृहि त्वं मे समुत्तिष्ठ सुजागृहि ।

अक्षयान् हेमकलशान् सुवर्णेन सुपूरितान् ॥ 42 ॥


निक्षेपान्मे समाकृष्य समुद्धृत्य ममाग्रतः ।

समुन्नतानना भूत्वा समाधेहि धरांतरात् ॥ 43 ॥


मत्सन्निधिं समागच्छ मदाहितकृपारसात् ।

प्रसीद श्रेयसां दोग्ध्री लक्ष्मीर्मे नयनाग्रतः ॥ 44 ॥


अत्रोपविश लक्ष्मि त्वं स्थिरा भव हिरण्मये ।

सुस्थिरा भव संप्रीत्या प्रसीद वरदा भव ॥ 45 ॥


आनीतांस्तु तथा देवि निधीन्मे संप्रदर्शय ।

अद्य क्षणेन सहसा दत्त्वा संरक्ष मां सदा ॥ 46 ॥


मयि तिष्ठ तथा नित्यं यथेंद्रादिषु तिष्ठसि ।

अभयं कुरु मे देवि महालक्ष्मीर्नमोऽस्तु ते ॥ 47 ॥


समागच्छ महालक्ष्मि शुद्धजांबूनदप्रभे ।

प्रसीद पुरतः स्थित्वा प्रणतं मां विलोकय ॥ 48 ॥


लक्ष्मीर्भुवं गता भासि यत्र यत्र हिरण्मयी ।

तत्र तत्र स्थिता त्वं मे तव रूपं प्रदर्शय ॥ 49 ॥


क्रीडंती बहुधा भूमौ परिपूर्णकृपामयि ।

मम मूर्धनि ते हस्तमविलंबितमर्पय ॥ 50 ॥


फलद्भाग्योदये लक्ष्मि समस्तपुरवासिनी ।

प्रसीद मे महालक्ष्मि परिपूर्णमनोरथे ॥ 51 ॥


अयोध्यादिषु सर्वेषु नगरेषु समास्थिते ।

वैभवैर्विविधैर्युक्तैः समागच्छ मुदान्विते ॥ 52 ॥


समागच्छ समागच्छ ममाग्रे भव सुस्थिरा ।

करुणारसनिष्यंदनेत्रद्वय विलासिनी ॥ 53 ॥ [निष्पन्न]


सन्निधत्स्व महालक्ष्मि त्वत्पाणिं मम मस्तके ।

करुणासुधया मां त्वमभिषिंच्य स्थिरं कुरु ॥ 54 ॥


सर्वराजगृहे लक्ष्मि समागच्छ बलान्विते । [मुदान्विते]

स्थित्वाऽऽशु पुरतो मेऽद्य प्रसादेनाऽभयं कुरु ॥ 55 ॥


सादरं मस्तके हस्तं मम त्वं कृपयार्पय ।

सर्वराजगृहे लक्ष्मि त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ 56 ॥


आद्यादि श्रीमहालक्ष्मि विष्णुवामांकसंस्थिते ।

प्रत्यक्षं कुरु मे रूपं रक्ष मां शरणागतम् ॥ 57 ॥


प्रसीद मे महालक्ष्मि सुप्रसीद महाशिवे ।

अचला भव संप्रीत्या सुस्थिरा भव मद्गृहे ॥ 58 ॥


यावत्तिष्ठंति वेदाश्च यावच्चंद्रदिवाकरौ ।

यावद्विष्णुश्च यावत्त्वं तावत्कुरु कृपां मयि ॥ 59 ॥


चांद्रीकला यथा शुक्ले वर्धते सा दिने दिने ।

तथा दया ते मय्येव वर्धतामभिवर्धताम् ॥ 60 ॥


यथा वैकुंठनगरे यथा वै क्षीरसागरे ।

तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ 61 ॥


योगिनां हृदये नित्यं यथा तिष्ठसि विष्णुना ।

तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ 62 ॥


नारायणस्य हृदये भवती यथास्ते

नारायणोऽपि तव हृत्कमले यथास्ते ।

नारायणस्त्वमपि नित्यमुभौ तथैव

तौ तिष्ठतां हृदि ममापि दयान्वितौ श्रीः ॥ 63 ॥


विज्ञानवृद्धिं हृदये कुरु श्रीः

सौभाग्यवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ।

दयासुवृद्धिं कुरुतां मयि श्रीः

सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ 64 ॥


न मां त्यजेथाः श्रितकल्पवल्लि

सद्भक्तचिंतामणिकामधेनो ।

विश्वस्य मातर्भव सुप्रसन्ना

गृहे कलत्रेषु च पुत्रवर्गे ॥ 65 ॥


आद्यादिमाये त्वमजांडबीजं

त्वमेव साकारनिराकृतिस्त्वम् ।

त्वया धृताश्चाब्जभवांडसंघा-

-श्चित्रं चरित्रं तव देवि विष्णोः ॥ 66 ॥


ब्रह्मरुद्रादयो देवा वेदाश्चापि न शक्नुयुः ।

महिमानं तव स्तोतुं मंदोऽहं शक्नुयां कथम् ॥ 67 ॥


अंब त्वद्वत्सवाक्यानि सूक्तासूक्तानि यानि च ।

तानि स्वीकुरु सर्वज्ञे दयालुत्वेन सादरम् ॥ 68 ॥


भवतीं शरणं गत्वा कृतार्थाः स्युः पुरातनाः ।

इति संचिंत्य मनसा त्वामहं शरणं व्रजे ॥ 69 ॥


अनंता नित्यसुखिनस्त्वद्भक्तास्त्वत्परायणाः ।

इति वेदप्रमाणाद्धि देवि त्वां शरणं व्रजे ॥ 70 ॥


तव प्रतिज्ञा मद्भक्ता न नश्यंतीत्यपि क्वचित् ।

इति संचिंत्य संचिंत्य प्राणान् संधारयाम्यहम् ॥ 71 ॥


त्वदधीनस्त्वहं मातस्त्वत्कृपा मयि विद्यते ।

यावत्संपूर्णकामः स्यात्तावद्देहि दयानिधे ॥ 72 ॥


क्षणमात्रं न शक्नोमि जीवितुं त्वत्कृपां विना ।

न जीवंतीह जलजा जलं त्यक्त्वा जलग्रहाः ॥ 73 ॥


यथा हि पुत्रवात्सल्याज्जननी प्रस्नुतस्तनी ।

वत्सं त्वरितमागत्य संप्रीणयति वत्सला ॥ 74 ॥


यदि स्यां तव पुत्रोऽहं माता त्वं यदि मामकी ।

दयापयोधरस्तन्यसुधाभिरभिषिंच माम् ॥ 75 ॥


मृग्यो न गुणलेशोऽपि मयि दोषैकमंदिरे ।

पांसूनां वृष्टिबिंदूनां दोषाणां च न मे मतिः ॥ 76 ॥


पापिनामहमेवाग्र्यो दयालूनां त्वमग्रणीः ।

दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये ॥ 77 ॥


विधिनाहं न सृष्टश्चेन्न स्यात्तव दयालुता ।

आमयो वा न सृष्टश्चेदौषधस्य वृथोदयः ॥ 78 ॥


कृपा मदग्रजा किं ते अहं किं वा तदग्रजः ।

विचार्य देहि मे वित्तं तव देवि दयानिधे ॥ 79 ॥


माता पिता त्वं गुरुसद्गतिः श्री-

-स्त्वमेव संजीवनहेतुभूता ।

अन्यं न मन्ये जगदेकनाथे

त्वमेव सर्वं मम देवि सत्ये ॥ 80 ॥


आद्यादिलक्ष्मीर्भव सुप्रसन्ना

विशुद्धविज्ञानसुखैकदोग्ध्री ।

अज्ञानहंत्री त्रिगुणातिरिक्ता

प्रज्ञाननेत्री भव सुप्रसन्ना ॥ 81 ॥


अशेषवाग्जाड्यमलापहंत्री

नवं नवं स्पष्टसुवाक्प्रदायिनी ।

ममेह जिह्वाग्र सुरंगनर्तकी [नर्तिनी]

भव प्रसन्ना वदने च मे श्रीः ॥ 82 ॥


समस्तसंपत्सुविराजमाना

समस्ततेजश्चयभासमाना ।

विष्णुप्रिये त्वं भव दीप्यमाना

वाग्देवता मे नयने प्रसन्ना ॥ 83 ॥


सर्वप्रदर्शे सकलार्थदे त्वं

प्रभासुलावण्यदयाप्रदोग्ध्री ।

सुवर्णदे त्वं सुमुखी भव श्री-

-र्हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ 84 ॥


सर्वार्थदा सर्वजगत्प्रसूतिः

सर्वेश्वरी सर्वभयापहंत्री ।

सर्वोन्नता त्वं सुमुखी भव श्री-

-र्हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ 85 ॥


समस्तविघ्नौघविनाशकारिणी

समस्तभक्तोद्धरणे विचक्षणा ।

अनंतसौभाग्यसुखप्रदायिनी

हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ 86 ॥


देवि प्रसीद दयनीयतमाय मह्यं

देवाधिनाथभवदेवगणाभिवंद्ये ।

मातस्तथैव भव सन्निहिता दृशोर्मे

पत्या समं मम मुखे भव सुप्रसन्ना ॥ 87 ॥


मा वत्स भैरभयदानकरोऽर्पितस्ते

मौलौ ममेति मयि दीनदयानुकंपे ।

मातः समर्पय मुदा करुणाकटाक्षं

मांगल्यबीजमिह नः सृज जन्म मातः ॥ 88 ॥


कटाक्ष इह कामधुक्तव मनस्तु चिंतामणिः

करः सुरतरुः सदा नवनिधिस्त्वमेवेंदिरे ।

भवे तव दयारसो मम रसायनं चान्वहं

मुखं तव कलानिधिर्विविधवांछितार्थप्रदम् ॥ 89 ॥


यथा रसस्पर्शनतोऽयसोऽपि

सुवर्णता स्यात्कमले तथा ते ।

कटाक्षसंस्पर्शनतो जनाना-

-ममंगलानामपि मंगलत्वम् ॥ 90 ॥


देहीति नास्तीति वचः प्रवेशा-

-द्भीतो रमे त्वां शरणं प्रपद्ये ।

अतः सदाऽस्मिन्नभयप्रदा त्वं

सहैव पत्या मयि सन्निधेहि ॥ 91 ॥


कल्पद्रुमेण मणिना सहिता सुरम्या

श्रीस्ते कला मयि रसेन रसायनेन ।

आस्तां यतो मम शिरःकरदृष्टिपाद-

-स्पृष्टाः सुवर्णवपुषः स्थिरजंगमाः स्युः ॥ 92 ॥


आद्यादिविष्णोः स्थिरधर्मपत्नी

त्वमेव पत्या मयि सन्निधेहि ।

आद्यादिलक्ष्मि त्वदनुग्रहेण

पदे पदे मे निधिदर्शनं स्यात् ॥ 93 ॥


आद्यादिलक्ष्मीहृदयं पठेद्यः

स राज्यलक्ष्मीमचलां तनोति ।

महादरिद्रोऽपि भवेद्धनाढ्य-

-स्तदन्वये श्रीः स्थिरतां प्रयाति ॥ 94 ॥


यस्य स्मरणमात्रेण तुष्टा स्याद्विष्णुवल्लभा ।

तस्याभीष्टं ददत्याशु तं पालयति पुत्रवत् ॥ 95 ॥


इदं रहस्यं हृदयं सर्वकामफलप्रदम् ।

जपः पंचसहस्रं तु पुरश्चरणमुच्यते ॥ 96 ॥


त्रिकालमेककालं वा नरो भक्तिसमन्वितः ।

यः पठेच्छृणुयाद्वापि स याति परमां श्रियम् ॥ 97 ॥


महालक्ष्मीं समुद्दिश्य निशि भार्गववासरे ।

इदं श्रीहृदयं जप्त्वा पंचवारं धनी भवेत् ॥ 98 ॥


अनेन हृदयेनान्नं गर्भिण्या अभिमंत्रितम् ।

ददाति तत्कुले पुत्रो जायते श्रीपतिः स्वयम् ॥ 99 ॥


नरेण वाऽथवा नार्या लक्ष्मीहृदयमंत्रिते ।

जले पीते च तद्वंशे मंदभाग्यो न जायते ॥ 100 ॥


य आश्विने मासि च शुक्लपक्षे

रमोत्सवे सन्निहिते सुभक्त्या ।

पठेत्तथैकोत्तरवारवृद्ध्या

लभेत्स सौवर्णमयीं सुवृष्टिम् ॥ 101 ॥


य एकभक्तोऽन्वहमेकवर्षं

विशुद्धधीः सप्ततिवारजापी ।

स मंदभाग्योऽपि रमाकटाक्षा-

-द्भवेत्सहस्राक्षशताधिकश्रीः ॥ 102 ॥


श्रीशांघ्रिभक्तिं हरिदासदास्यं

प्रसन्नमंत्रार्थदृढैकनिष्ठाम् ।

गुरोः स्मृतिं निर्मलबोधबुद्धिं

प्रदेहि मातः परमं पदं श्रीः ॥ 103 ॥


पृथ्वीपतित्वं पुरुषोत्तमत्वं

विभूतिवासं विविधार्थसिद्धिम् ।

संपूर्णकीर्तिं बहुवर्षभोगं

प्रदेहि मे लक्ष्मि पुनः पुनस्त्वम् ॥ 104 ॥


वादार्थसिद्धिं बहुलोकवश्यं

वयः स्थिरत्वं ललनासुभोगम् ।

पौत्रादिलब्धिं सकलार्थसिद्धिं

प्रदेहि मे भार्गवि जन्मजन्मनि ॥ 105 ॥


सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः

सुधान्यवृद्धिं कुरू मे गृहे श्रीः ।

कल्याणवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः

विभूतिवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ 106 ॥


ध्यायेल्लक्ष्मीं प्रहसितमुखीं कोटिबालार्कभासां

विद्युद्वर्णांबरवरधरां भूषणाढ्यां सुशोभाम् ।

बीजापूरं सरसिजयुगं बिभ्रतीं स्वर्णपात्रं

भर्त्रायुक्तां मुहुरभयदां मह्यमप्यच्युतश्रीः ॥ 107 ॥


गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।

सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्मयि स्थिता ॥ 108 ॥


॥ इति श्रीअथर्वणरहस्ये श्रीलक्ष्मीहृदयस्तोत्रं संपूर्णम् ॥


🌺 निष्कर्ष:

जो व्यक्ति श्रद्धा, भक्ति और निष्ठा के साथ "श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्र" का नियमित पाठ करता है, उसके जीवन में लक्ष्मीजी का स्थायी वास होता है। यह केवल धन-संपत्ति का नहीं, बल्कि *सद्गुण, सौभाग्य और शांति* का भी स्तोत्र है।

Sri Lakshmi Hrudaya Stotram Ke Fayde aur Lyrics, श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्र के पाठ का महत्व, महा लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने का शक्तिशाली स्त्रोत्र. 

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